'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला
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मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ