'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
दाना-ए-सुब्हा पिरोता अभी ज़ुन्नार के बीच
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रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
नहीं करती असर फ़रियाद मेरी
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले