'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
इक तो आशिक़ हो और उस कूचे में बदनाम भी हो
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उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक