'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
अपनी पर रेख़्ता-गोई की ज़बाँ और ही है
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दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
दिल दुखा ही करे है सीने में
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा