'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
अब है अशआर-ए-हिंदवी का रिवाज
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चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को