मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
बनावें आइने में अपना नक़श-ए-सानी आप
Gulzar
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हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
देख उस को इक आह हम ने कर ली
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का