मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
मुँह से ये सुख़न गब्र ओ मुसलमाँ न निकालो
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Wasi Shah
Jaun Eliya
Anwar Masood
Gulzar
Allama Iqbal
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(300) Peoples Rate This
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं