मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
ऐ पीर-ए-चर्ख़ सब ये बद-ज़ातियाँ हैं तेरी
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मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस