मुझ को पामाल कर गया है वही
ये जो दामन उठाए जाता है
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लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
दिल में मुर्ग़ान-ए-चमन के तो गुमाँ और ही है
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ