मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
अल्लाह का क़दीम से है नाम बे-नुक़त
Wasi Shah
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दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में