मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
इक शब न जला बस-कि हुआ शाम से मअ'ज़ूल
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तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
औरों की तरफ़ तू देखता है
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा