मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
यही इक रेख़्ता-गो अब रहा है
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मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
ऐ 'मुसहफ़ी' तुर्बत का मिरी नाम न लेना
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
जलता है जिगर तो चश्म नम है
है माह कि आफ़्ताब क्या है
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा