मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
हो जावे फ़ौत वक़्त ही जब तक वज़ू करें
Allama Iqbal
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शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
या-रब आबाद होवें घर सब के
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही