मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
क्या ज़ोर-ए-आईना है ये होवे अगर दुरुस्त
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माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता