मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
कि ये ग़रीब है इस का सलाम क्यूँ लीजे
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जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे