मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
ख़ूँ मेरा दस्त-ओ-पा से तेरे लिपट रहा है
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शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
कल तो खेले था वो गिली डंडा
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़