मेहनत पे टुक नज़र कर सूरत गर अज़ल ने
चालीस दिन में तेरा मीम-ए-दहाँ बनाया
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क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
इक दर्द-ए-मोहब्बत है कि जाता नहीं वर्ना
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी