मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
लिया था ख़्वाब में बोसा जो यक शब सेब-ए-ग़बग़ब का
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निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
देख उस को इक आह हम ने कर ली
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों