मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
हम से तुम कुछ माँगने आओ बहाने फाग के
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पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
हम से वो बे-सबब उलझती है
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना