मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
दुनिया में मुझ सा कम है कोई सोगवार शख़्स
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आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो