मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
क्यूँ अपने शहीदों के आसार मिटाते हो
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कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
एक नाले पे है मआश अपनी
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
आह हमराज़ कौन है अपना
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी
फ़लक की ख़बर कब है ना-शाइरों को
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
करता हूँ सवाल जिस के दर पर