मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
इस में काफ़िर कोई समझे कि मुसलमाँ मुझ को
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ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ