मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
लड़के जूँ खेलते में जाते हैं उस्ताद से छुप
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वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से