मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
आदमी से ख़ता भी होती है
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हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
बाग़ था उस में आशियाँ भी था
नहीं करती असर फ़रियाद मेरी
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर