मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार
अंजाम मिरा वस्ल की शब कुछ भी तो होगा
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ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ