मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
जब तू ही न हो पास तो किस काम की आँखें
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रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा