मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
कर मदद ऐ नफ़स-ए-बाज़-पसीं थोड़ी सी
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जो है सो तुम्हारा ही तरफ़-दार है साहिब
कटता हूँ मैं भी वो कि मिरी जिंस-ए-दिल को देख
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर