मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
नाहक़ फँसा वो क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन के बीच
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फ़िक्र-ए-सुख़न तलाश-ए-मआश ओ ख़याल-ए-यार
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ