मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
सुन सुन के चुप रहूँ मैं न ''हाँ'' और न ''हूँ'' करूँ
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क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
आज पलकों को जाते हैं आँसू
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़