मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
चूमी जो भौं तो बोला कि तलवार खाएगा
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हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
या-रब आबाद होवें घर सब के
तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
ज़ीं-साज़ी अगर आती मुझे मैं तो मिरी जाँ
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर