मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
शहर के लोग खड़े हैं ब-सर-ए-बाम तमाम
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ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
जाने दे टुक चमन में मुझे ऐ सबा सरक
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
वारफ़्ता हूँ ऐसा में कि कूचे में बुताँ के
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम