मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
आब भी छिड़का तो रोग़न हो गया
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यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने