मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
घर से निकल के हो जिसे बरसात राह में
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बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
फ़िक्र-ए-सुख़न तलाश-ए-मआश ओ ख़याल-ए-यार