मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
तो आसमाँ हो मिरे हक़ में वो ज़मीं घर की
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कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
ऐ ज़ाहिदो बातिल से क़सम खाओ जो पहले
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें