मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
दम-ब-दम है यही दीन ओ दिल ओ ईमाँ मेरा
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उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ