मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
मिरे जी में ख़्वाहिश-ए-वस्ल थी तिरे दिल में बोस-ओ-कनार था
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हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
तू देखे तो इक नज़र बहुत है
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
जलता है जिगर तो चश्म नम है
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
आसमाँ को निशाना करते हैं
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं