मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
कहीं दिल सा भी यार पैदा हुआ है
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बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे