मैं क्या जानूँ क़लक़ क्या चीज़ है पर इतना जानूँ हूँ
मिले है दिल को पहलू में मिरे शाम ओ सहर कोई
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क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
दिल दुखा ही करे है सीने में
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई