मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
अल्लाह-रे रसाई मिरी पर्वाज़ तो देखो
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जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
जल्वा-गर उस का सरापा है बदन आइने में