मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
कोई काफ़िर कहे या कोई मुसलमाँ मुझ को
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जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
रात के रहने का न डर कीजिए