मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे और वही ले सवाब उल्टा
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मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर