महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
पानी से तिही हबाब देखा
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जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
आज पलकों को जाते हैं आँसू
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
जी से मुझे चाह है किसी की
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा