माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
उस ने फिर रौज़न-ए-नज़्ज़ारा मुक़र्रर खोला
Rahat Indori
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किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
मुझ को पामाल कर गया है वही
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
देख उस को इक आह हम ने कर ली
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा