मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
उस के दामन पे मैं तिफ़लाना मचल जाता हूँ
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होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
रात के रहने का न डर कीजिए
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा