लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
जिस तरह छोड़ के हम शहर-ए-अदम निकले हैं
Javed Akhtar
Habib Jalib
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रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़