ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
इस दश्त से आती है कुछ आवाज़-ए-दरा गर्म
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'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को