ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
आप की आँखों की बेदारी है ये
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ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का