लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
बात वो है जो तिरे दिल में जगह पाती है
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जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
चश्म ने की गौहर-अफ़्शानी सरीह
या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम