लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
नाक़ा मचल के नज्द की मंज़िल में रह गया
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ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
ढूँढता है मुझे वो तेग़ लिए और मैं वहीं
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम