लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
अफ़्साना मिरे ख़्वाब को ऐ हम-सफ़राँ तल्ख़
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बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
बहस उस की मेरी वक़्त-ए-मुलाक़ात बढ़ गई
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
आँखों को फोड़ डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी